हाँ, कोई और होगा तूने जो देखा होगा
हम नहीं आग से बच-बचके गुज़रने वाले
न इन्तज़ार, न आहट, न तमन्ना, न उमीद
ज़िन्दगी है कि यूँ बेहिस हुई जाती है
इतना कह कर बीत गई हर ठंडी भीगी रात
सुखके लम्हे, दुख के साथी, तेरे ख़ाली हात
हाँ, बात कुछ और थी, कुछ और ही बात हो गई
और आँख ही आँख में तमाम रात हो गई
कई उलझे हुए ख़यालात का मजमा है यह मेरा वुजूद
कभी वफ़ा से शिकायत कभी वफ़ा मौजूद
जिन्दगी आँख से टपका हुआ बेरंग कतरा
तेरे दामन की पनाह पाता तो आंसु होता
By:- Meena Kumari
Wednesday, March 16, 2011
ख़याल उसका हर एक लम्हा
ख़याल उसका हर एक लम्हा मन में रहता है
वो शमअ बनके मेरी अंजुमन में रहता है।
कभी दिमाग में रहता है ख़्वाब की मानिंद
कभी वो चाँद की सूरत , गगन में रहता है।
वो बह रहा है मेरे जिस्म में लहू बनकर
वो आग बनके मेरे तन-बदन में रहता है।
मैं तेरे पास हूँ, परदेस में हूँ,ख़ुश भी हूँ
मगर ख़याल तो हरदम वतन में रहता है।
ये बात सच है चमन से निकल के प्यार मिला
मगर वो फूल जो खिल कर चमन में रहता है।
वो शमअ बनके मेरी अंजुमन में रहता है।
कभी दिमाग में रहता है ख़्वाब की मानिंद
कभी वो चाँद की सूरत , गगन में रहता है।
वो बह रहा है मेरे जिस्म में लहू बनकर
वो आग बनके मेरे तन-बदन में रहता है।
मैं तेरे पास हूँ, परदेस में हूँ,ख़ुश भी हूँ
मगर ख़याल तो हरदम वतन में रहता है।
ये बात सच है चमन से निकल के प्यार मिला
मगर वो फूल जो खिल कर चमन में रहता है।
Friday, March 11, 2011
काँटे तो काँटे होते हैं
काँटे तो काँटे होते हैं उनके चुभने का क्या रोना ।
मुझको तो अखरा करता है फूलों का काँटों-सा होना ।
युग-युग तक उनकी मिट्टी से फूलों की ख़ुशबू आती है
जिनका जीवन ध्येय रहा है कांटे चुनना कलियाँ बोना ।
बदनामी के पर होते हैं अपने आप उड़ा करती है
मेरे अश्रु बहें बह जाएँ तुम अपना दामन न भिगोना ।
दुनिया वालों की महफ़िल में पहली पंक्ति उन्हें मिलती है
जिनको आता है अवसर पर छुपकर हँसना बन कर रोना ।
वाणी के नभ में दिनकर-सा ‘उदय’ नहीं तू हो सकता है
अगर नहीं तूने सीखा है नये घावों में क़लम डुबोना ।
By:- "उदयप्रताप सिंह"
मुझको तो अखरा करता है फूलों का काँटों-सा होना ।
युग-युग तक उनकी मिट्टी से फूलों की ख़ुशबू आती है
जिनका जीवन ध्येय रहा है कांटे चुनना कलियाँ बोना ।
बदनामी के पर होते हैं अपने आप उड़ा करती है
मेरे अश्रु बहें बह जाएँ तुम अपना दामन न भिगोना ।
दुनिया वालों की महफ़िल में पहली पंक्ति उन्हें मिलती है
जिनको आता है अवसर पर छुपकर हँसना बन कर रोना ।
वाणी के नभ में दिनकर-सा ‘उदय’ नहीं तू हो सकता है
अगर नहीं तूने सीखा है नये घावों में क़लम डुबोना ।
By:- "उदयप्रताप सिंह"
जिनसे हम छूट गये
जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं
शाखे गुल कैसे हैं खुश्बू के मकां कैसे हैं ।।
ऐ सबा तू तो उधर से ही गुज़रती होगी
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं ।।
कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
आके देखो मेरी यादों के जहां कैसे हैं ।।
मैं तो पत्थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया
आज उस शहर में शीशे के मकां कैसे हैं ।।
जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं ।।
By:- "राही मासूम रज़ा"
शाखे गुल कैसे हैं खुश्बू के मकां कैसे हैं ।।
ऐ सबा तू तो उधर से ही गुज़रती होगी
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं ।।
कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
आके देखो मेरी यादों के जहां कैसे हैं ।।
मैं तो पत्थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया
आज उस शहर में शीशे के मकां कैसे हैं ।।
जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं ।।
By:- "राही मासूम रज़ा"
मैं तो झोंका हूँ
मैं तो झोंका हूँ हवा का उड़ा ले जाऊँगा
जागती रहना तुझे तुझसे चुरा ले जाऊँगा
हो के कदमों पे निछावर फूल ने बुत से कहा
ख़ाक में मिल के भी मैं खुश्बू बचा ले जाऊँगा
कौन सी शै मुझको पहुँचाएगी तेरे शहर तक
ये पता तो तब चलेगा जब पता ले जाऊँगा
कोशिशें मुझको मिटाने की भले हों कामयाब
मिटते-मिटते भी मैं मिटने का मजा ले जाऊँगा
शोहरतें जिनकी वजह से दोस्त दुश्मन हो गये
सब यह रह जायेंगी मैं साथ क्या ले जाऊँगा
By: Dr. Kumar Vishwas
जागती रहना तुझे तुझसे चुरा ले जाऊँगा
हो के कदमों पे निछावर फूल ने बुत से कहा
ख़ाक में मिल के भी मैं खुश्बू बचा ले जाऊँगा
कौन सी शै मुझको पहुँचाएगी तेरे शहर तक
ये पता तो तब चलेगा जब पता ले जाऊँगा
कोशिशें मुझको मिटाने की भले हों कामयाब
मिटते-मिटते भी मैं मिटने का मजा ले जाऊँगा
शोहरतें जिनकी वजह से दोस्त दुश्मन हो गये
सब यह रह जायेंगी मैं साथ क्या ले जाऊँगा
By: Dr. Kumar Vishwas
Wednesday, March 02, 2011
चंद शेर
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये ।
--
ज़िन्दगी तूने मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है ।
--
जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता ।
--
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों ।
--
एक दिन तुझ से मिलनें ज़रूर आऊँगा
ज़िन्दगी मुझ को तेरा पता चाहिये ।
--
इतनी मिलती है मेरी गज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझ को मेरा महबूब समझते होंगे ।
--
वो ज़ाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे ।
--
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलानें में।
--
पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,
आँखों को अभी ख्वाब छुपाने नहीं आते ।
--
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था.
फिर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला ।
--
मैं इतना बदमुआश नहीं यानि खुल के बैठ
चुभने लगी है धूप तो स्वेटर उतार दे ।
By :- "बशीर बद्र"
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये ।
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ज़िन्दगी तूने मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है ।
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जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता ।
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दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों ।
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एक दिन तुझ से मिलनें ज़रूर आऊँगा
ज़िन्दगी मुझ को तेरा पता चाहिये ।
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इतनी मिलती है मेरी गज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझ को मेरा महबूब समझते होंगे ।
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वो ज़ाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे ।
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लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलानें में।
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पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,
आँखों को अभी ख्वाब छुपाने नहीं आते ।
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तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था.
फिर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला ।
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मैं इतना बदमुआश नहीं यानि खुल के बैठ
चुभने लगी है धूप तो स्वेटर उतार दे ।
By :- "बशीर बद्र"
सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं
सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं
मांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं
देखा तुझे सोचा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे
मेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं
जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर
भेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं
इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत मुँह से कहा कुछ भी नहीं
दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जायेगा
जब आग पर काग़ज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नहीं
अहसास की ख़ुश्बू कहाँ आवाज़ के जुगनू कहाँ
ख़ामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं
By:- "बशीर बद्र"
मांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं
देखा तुझे सोचा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे
मेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं
जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर
भेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं
इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत मुँह से कहा कुछ भी नहीं
दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जायेगा
जब आग पर काग़ज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नहीं
अहसास की ख़ुश्बू कहाँ आवाज़ के जुगनू कहाँ
ख़ामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं
By:- "बशीर बद्र"
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