Friday, November 19, 2010

बिस्तरों से गुज़री है ।।

प्यार की उम्र फ़कत हादसों से गुज़री है ।
ओस है, जलते हुए पत्थरों से गुज़री है ।।

दिन तो काटे हैं, तुझे भूलने की कोशिश में
शब मगर मेरी, तेरे ही ख़तों से गुज़री है ।।

ज़िंदगी और ख़ुदा का, हमने ही रक्खा है भरम
बात तो बारहा, वरना हदों से गुज़री है ।।

कोई भी ढाँक सका न, वफ़ा का नंगा बदन
ये भिखारन तो हज़ारों घरों से गुज़री है ।।

हादसों से जहाँ लम्हों के, जिस्म छिल जाएँ
ज़िंदगी इतने तंग रास्तों से गुज़री है ।।

ये सियासत है, भले घर की बहू-बेटी नहीं
ये तवायफ़ तो, कई बिस्तरों से गुज़री है ।।

जब से सूरज की धूप, दोपहर बनी मुझपे
मेरी परछाई, मुझसे फ़ासलों से गुज़री है

3 comments:

POOJA... said...

बहुत-बहुत सुन्दर रचना... क्या कटाक्ष हैं... वाह...

संजय भास्‍कर said...

वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा

रंजना said...

वाह...एक एक शेर भावपूर्ण और लाजवाब...

बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल पढवाई आपने....

आभार...