Sunday, January 30, 2011

जाने कहाँ गए वोह दिन!!!!!!!

वोह कहते था मुझसे बहुत याद आयेंगे वो दिन..

जब छोड़ जाओगे हमे...



वोह कैंटीन की सीढिया होंटों पे सिगरेट ...

हाथो में चाए की प्याली चेहरे पे थी हर वक़्त,

खुशियों भरी लाली ...



थे लफडे भी हमारे बहुत कभी सीनियरों से झगडा ...

तो कभी लड़कियों से रगडा जो थी हमारी खुशिया ..

वोह रही नहीं अब हमारी



क्लास में भी थी हमारी मस्ती टीचर भी थे हमारे अजीब...

बन जाते थे हमारे ही रकीब अंदाज़ था उनका अपना

लो.....आप है यहाँ ?

अब हम हैं कहाँ ?



लड़कियों की टोलिया कोई थी काले नकाबो में...

तो कुछ थी बिना हिजाबों में..

भटक रहा हु अब कहाँ .....

शहर की तपती धुप में ...



कोलतार की लम्बी चौडी सड़के ऊँची उनकी इमारतें...

रोज़ बिकते लोग बिकती संस्कृति...

बिकता यहाँ त्याग और बलिदान भी ....



सच...

कितने खुश थे हम दोस्तों की दोस्ती..

और हर वक़्त थी मस्ती, चीज़ें भी सस्ती ..

जाने कहाँ गए वोह दिन !!!!!!!

Friday, January 28, 2011

कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है

कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो, तो हर बात सुनी जाती है

जैसा चाहा था तुझे, देख न पाये दुनिया
दिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है

एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने
कैसे माँ-बाप के होंठों से हँसी जाती है

कर्ज़ का बोझ उठाये हुए चलने का अज़ाब
जैसे सर पर कोई दीवार गिरी जाती है

अपनी पहचान मिटा देना हो जैसे सब कुछ
जो नदी है वो समंदर से मिली जाती है

पूछना है तो ग़ज़ल वालों से पूछो जाकर
कैसे हर बात सलीक़े से कही जाती है

By:- "वसीम बरेलवी"

मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा

मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा

ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा

मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा

कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा

मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा

हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा
By:- "वसीम बरेलवी"

तुझको सोचा तो पता हो गया

तुझको सोचा तो पता हो गया रुसवाई को
मैंने महफूज़ समझ रखा था तन्हाई को

जिस्म की चाह लकीरों से अदा करता है
ख़ाक समझेगा मुसव्विर तेरी अँगडाई को

अपनी दरियाई पे इतरा न बहुत ऐ दरिया ,
एक कतरा ही बहुत है तेरी रुसवाई को

चाहे जितना भी बिगड़ जाए ज़माने का चलन,
झूठ से हारते देखा नहीं सच्चाई को

साथ मौजों के सभी हो जहाँ बहने वाले ,
कौन समझेगा समन्दर तेरी गहराई को.

By:- "वसीम बरेलवी"

मैं अपने ख़्वाब से बिछ्ड़ा नज़र नहीं आता

मैं अपने ख़्वाब से बिछ्ड़ा नज़र नहीं आता
तू इस सदी में अकेला नज़र नहीं आता

अजब दबाव है इन बाहरी हवाओं का
घरों का बोझ भी उठता नज़र नहीं आता

मैं इक सदा पे हमेशा को घर छोड़ आया
मगर पुकारने वाला नज़र नहीं आता

मैं तेरी राह से हटने को हट गया लेकिन
मुझे तो कोई भी रस्ता नज़र नहीं आता

धुआँ भरा है यहाँ तो सभी की आँखों में
किसी को घर मेरा जलता नज़र नहीं आता.

By:- "वसीम बरेलवी"

Saturday, January 22, 2011

झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं

झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं |
तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता
मेरी तरह तेरा दिल बेक़रार है कि नहीं ||
वो पल के जिस में मुहब्बत जवान होती है
उस एक पल का तुझे इंतज़ार है कि नहीं ||
तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को
तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है कि नहीं ||

By:- "कैफ़ी आज़मी"

कोई ये कैसे बता ये के वो तन्हा क्यों हैं

कोई ये कैसे बता ये के वो तन्हा क्यों हैं
वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों हैं
यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं ||

एक ज़रा हाथ बढ़ा, दे तो पकड़ लें दामन
उसके सीने में समा जाये हमारी धड़कन
इतनी क़ुर्बत हैं तो फिर फ़ासला इतना क्यों हैं ||

दिल-ए-बरबाद से निकला नहीं अब तक कोई
एक लुटे घर पे दिया करता हैं दस्तक कोई
आस जो टूट गयी फिर से बंधाता क्यों हैं ||

तुम मसर्रत का कहो या इसे ग़म का रिश्ता
कहते हैं प्यार का रिश्ता हैं जनम का रिश्ता
हैं जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यों हैं ||

By:- "कैफ़ी आज़मी"

चोटों पे चोट

चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया ||

जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया ||

सूखा पुराना ज़ख्म नए को जगह मिली
स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया ||

आतीं न तुम तो क्यों मैं बनाता ये सीढ़ियाँ
दीवारों, मेरी राह में आने का शुक्रिया ||

आँसू-सा माँ की गोद में आकर सिमट गया
नज़रों से अपनी मुझको गिराने का शुक्रिया ||

अब यह हुआ कि दुनिया ही लगती है मुझको घर
यूँ मेरे घर में आग लगाने का शुक्रिया ||

ग़म मिलते हैं तो और निखरती है शायरी
यह बात है तो सारे ज़माने का शुक्रिया ||

अब मुझको आ गए हैं मनाने के सब हुनर
यूँ मुझसे रूठ के जाने का शुक्रिया ||
By:- "कुँअर बेचैन"

मौत तो आनी है

मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ
जिंदगी आ, तेरे क़दमों पर मैं अपना सर रखूँ ||

जिसमें माँ और बाप की सेवा का शुभ संकल्प हो
चाहता हूँ मैं भी काँधे पर वही काँवर रखूँ ||

हाँ, मुझे उड़ना है लेकिन इसका मतलब यह नहीं
अपने सच्चे बाज़ुओं में इसके-उसके पर रखूँ ||

आज कैसे इम्तहाँ में उसने डाला है है मुझे
हुक्म यह देकर कि अपना धड़ रखूँ या सर रखूँ ||

कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े
सोचता हूँ हर घड़ी तैयार अब बिस्तर रखूँ ||

ऐसा कहना हो गया है मेरी आदत में शुमार
काम वो तो कर लिया है काम ये भी कर रख रखूँ ||

खेल भी चलता रहे और बात भी होती रहे
तुम सवालों को रखो मैं सामने उत्तर रखूँ ||

By:- "कुँअर बेचैन"