Wednesday, December 29, 2010

"काँच की बरनी और दो कप चाय"

जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है , सब कुछ तेजी
से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम
पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी और दो कप चाय " हमें याद आती
है ।

दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे
आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ...

उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें
टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची ...
उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ ...
आवाज आई ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे - छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये h धीरे - धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये ,
फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ ... कहा
अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे ...
फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ
.. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा ..
सर ने टेबल के नीचे से
चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली , चाय भी रेत के बीच स्थित
थोडी़ सी जगह में सोख ली गई ...

प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया –


इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो ....

टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे , मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं ,

छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और

रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है ..

अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी ...
ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ... यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे
और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय
नहीं रहेगा ... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने
बच्चों के साथ खेलो , बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ ,
घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको , मेडिकल चेक - अप करवाओ ...
टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण है ... पहले तय करो कि क्या जरूरी है
... बाकी सब तो रेत है ..
छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे .. अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह नहीं बताया
कि " चाय के दो कप " क्या हैं ?
प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले .. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया ... इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिन
अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।

Wednesday, December 22, 2010

किसी आहू के लिये दूर तलक मत जाना

किसी आहू के लिये दूर तलक मत जाना
शाहज़ादे कहीं जंगल में भटक मत जाना

इम्तहां लेंगे यहाँ सब्र का दुनिया वाले
मेरी आँखों ! कहीं ऐसे में चलक मत जाना

जिंदा रहना है तो सड़कों पे निकलना होगा
घर के बोसीदा किवाड़ों से चिपक मत जाना

कैंचियां ढ़ूंढ़ती फिरती हैं बदन खुश्बू का
खारे सेहरा कहीं भूले से महक मत जाना

ऐ चरागों तुम्हें जलना है सहर होने तक
कहीं मुँहजोर हवाओं से चमक मत जाना

By:- राहत इन्दौरी

आओगी तुम मुस्कराकर

बीता रात का तीसरा पहर
तुम नहीं आए
आधा हुआ चंदा पिघलकर
तुम नहीं आए

मै अकेला हूँ यहाँ पर
यादो की चादर ओढ़कर
रात भर पीता रहा
ओस में चाँदनी घोलकर

फूल खिले है ताज़ा या तुम
अपने होठ भिगोए हो
हवा हुई है गीली-सी क्यों
शायद तुम भी रोए हो

अब सही जाती नहीं प्रिय
एक पल की भी जुदाई
देखकर बैठा अकेला
मुझ पे हँसती है जुन्हाई

बुलबुलें भी उड़ गई हैं
रात सारी गीत गाकर
किन्तु मुझको है भरोसा
आओगी तुम मुस्कराकर

किन्तु मुझको है भरोसा
आओगी तुम मुस्कराकर


By:- पवन कुमार मिश्र

इक बार कहो ना मीत मेरे.

इक बात चाहता हूँ सुनना
तुम जब-जब बाते करती हो
इक बार कहो ना मीत मेरे
तुम मुझसे मुहब्बत करती हो

इस दिल को कैसे समझाऊँ
लोगो को क्या मैं बतलाऊँ
है पूछ रहा ये जग सारा
तुम मेरी क्या लगती हो

इक बार कहो ना मीत मेरे
तुम मुझसे मुहब्बत करती हो

इक नए विश्व कि रचना कर दूँ
और अंतहीन आकाश बना दूँ
इक बार काँपते होठों से
तुम कह दो मेरी धरती हो

इक बार कहो ना मीत मेरे
तुम मुझसे मुहब्बत करती हो

याद तुम्हारी छू जाती है
मन में अकुलाहट भर जाती है
इस पार हूँ मै उस पार खड़ी तुम
बीच में नदिया बहती है

इक बार कहो ना मीत मेरे
तुम मुझसे मुहब्बत करती हो

बात ज़बाँ की दिल कहता है
कहो ना कहो ये सब सुनता है
चाँद बताता है मुझको तुम
सदियों से मुझ पर मरती हो

इक बार कहो ना मीत मेरे
तुम मुझसे मुहब्बत करती हो

By:- पवन कुमार मिश्र

Sunday, December 19, 2010

नींद

नींद उस बच्चे की
जिसे परियाँ खिला रहीं हैं
मुस्कान उसके चेहरे पर
सुबह की किरणों की तरह खिली हुई हैं

नींद उस नौजवान की
जिसकी आँखों में करवट बदल रही है
एक सूखती हुई नदी

नींद उस किसान की
जो रात भर
बिवाई की तरह फटे खेतों में
हल जोतकर लौटा है अभी

नींद उस युवती की
जिसके अन्दर
सपनों का समुद्र पछाड़ खा रहा है

नींद उस बूढ़े की
जिसकी आँखों में
एक भूतहा खण्डहर बचा है
खण्डहर की ईंटों की रखवाली में
वह रातभर खाँसता रहता है

किसिम-किसिम की होती है नींद
हर नींद के बाद जागना होता है
जिस नींद के बाद
जागने की गुँजाईश नहीं होती है
वह मौत होती है।

By:- प्रदीप मिश्र

ऐसा कैसे होता है

हम भी बच्चे तुम भी बच्चे
क्या हममें तुममें भेद

भेद बहुत है हममें तुममें
सुन्दर कपड़े, अच्छा खाना
बढ़िया सा स्कूल
पढ़ लिखकर तुम आगे बढ़ते
हम रोजी-रोटी में गुल

क्योंकर ऐसा होता है
ऐसा कैसे होता है
मानव-मानव सभी एक हैं
सबमें एक सा प्राण
फिर क्यों तुम इतनी मस्ती में
हम हैं लस्त-पस्त निस्प्राण

बच्चों के इन प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों में
रेंग रहें हैं सांप

सांपों के पीछे-पीछे
दौड़-भाग करते लोगों में
छंदों जैसा कुछ भी नहीं है
किसी पंक्ति में
किसी सिरे में
कोई ताल-मेल नहीं है

हम भी बच्चे तुम भी बच्चे
फिर भी भेद अनेक
समझ सको तो समझ के चलना
गड्ढों को तुम भरते चलना
मिट जाएगा भेद

हम भी बच्चे तुम भी बच्चे
क्या हममें तुममें भेद ।

By:- प्रदीप मिश्र

मुझे शब्द चाहिए

हँसना चाहता हूँ
इतनी ज़ोर की हँसी चाहिए
जिसकी बाढ़ में बह जाए
मन की सारी कुण्ठाएँ

रोना चाहता हूँ
इतनी करुणा चाहिए कि
उसकी नमी से
खेत में बदल जाए सारा मरूस्थल

चिल्लाना चाहता हूँ
इतनी तीव्रता चाहिए जिससे
सामने खड़ी चट्टान में
दरार पड़ जाए

बात करना चाहता हूँ
ऐसे शब्द चाहिए
जो हमारे रगों में बहें

जैसे बहती रहती है नदी
पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे अन्दर निरंतर
जैसे भीनता रहती है वायु
फेफड़ों की सतह पर

बात करना चाहता हूँ
मुझे वायु जैसे शब्द चाहिए
और नदी जैसी भाषा
By:- प्रदीप मिश्र