Thursday, July 29, 2010

Mirza Ghalib

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ-सा कहें जिसे

हसरत ने ला रखा तेरी बज़्म-ए-ख़याल में
गुलदस्ता-ए-निगाह सुवैदा[1] कहें जिसे

फूँका है किसने गोश-ए-मुहब्बत[2] में ऐ ख़ुदा
अफ़सून-ए-इन्तज़ार[3] तमन्ना कहें जिसे

सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी[4] से डालिये
वो एक मुश्त-ए-ख़ाक[5] कि सहरा[6] कहें जिसे

है चश्म-ए-तर[7] में हसरत-ए-दीदार से निहां[8]
शौक़-ए-अ़ना-गुसेख़्ता[9] दरिया कहें जिसे

दरकार है शगुफ़्तन-ए-गुल हाये-ऐश[10] को
सुबह-ए-बहार पम्बा-ए-मीना[11] कहें जिसे

"गा़लिब" बुरा न मान जो वाइज़[12] बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे

शब्दार्थ:

↑ दिल का दाग़
↑ प्रेमी का कान
↑ प्रतिज्ञा का जादू
↑ अकेले रहने की पीड़ा की अधिकता
↑ एक मुठ्ठी मिट्टी
↑ रेगिस्तान
↑ आँख
↑ छुपा हुआ
↑ बेलगाम शौक़
↑ ऐश्वर्य के फूलों को खिलने के लिए
↑ शराब की सुराही पर रखा हुआ रुई के फाहा
↑ उपदेशक

No comments: